सिपाही की नज़र से

‘अरे चैतू ! ये मटका कौन रख गया बेवकूफ ?’ पीठासीन महोदय ने डांट कर पूछा ।

चैतू जो साहब के नाश्ता पानी की जुगत में दोपहर से नदारद था उसने सहमते हुए कहा ‘जी सर हम नहीं थे तब, लगता है; ऊ नगर निगम वाले चसमुलिया बाबू जी ने रखवाया है, लोगों के पानी वानी….. ‘

चैतू ने साहब के लिए चाय पेश की ।

‘ हद है यार, सिपाही को बुलाओ जरा !’ पी.ओ. साहब ने कड़क आवाज में भड़कते हुए कहा ।

चैतू जो निजी पहरेदार है पाठशाला का, दुशाला ओढ़े सरकारी पहरेदार को आवाज लगाता है ‘सर आपको सर बुला रहे हैं ।’

‘जी श्रीमान जी आदेश  !’ सिपाही पैर पटकते हुए तन जाता है सात इंच ऊपर।

‘तुम्हें जानकारी है तुम कहां खड़े हो अभी ?’ साहब चढ़ जाते हैं साढ़े सात इंच अपने पंजो पर ।

सिपाही सावधान मुद्रा में मुठ्ठी भींच लेता है ।

‘महानुभाव जहां खड़े हैं आप, उसे मतदान केंद्र कहते है जिसे आदर्श बूथ का तमगा मिला हुआ है कड़ी – मशक्कत के बाद और अगले 24 घंटे में आप को इसे सार्थक सिद्ध करना है जो कि मुझे मुमकिन तो नहीं लग रहा है अभी फिर भी उम्मीद करते हैं चुनाव संबंधी ट्रेनिंग मिली होगी आपको ।’ साहब गरमा जाते हैं केतली की तरह । (आये दिनों खुफिया एजेंसियों को जिस डाटा लीक का खतरा लगा रहता है अनवरत; ठीक उससे ३६ ग्राम ज्यादा खौफ उस जाड़े की मध्यरात्रि को मूर्तिवत खड़े सरकारी पहरेदार को सता रहा था ।)

‘तुम्हें पता होना चाहिए, मतदान केंद्र से १०० मीटर की परिधि में कोई भी चुनाव चिन्ह संबंधी चिन्हों का प्रदर्शन/उपयोग नहीं होना चाहिए,  फिर ये मटका, झाड़ू, साइकिल और …. ‘

सिपाही झट से हथेलियों को अपनी जेब में छुपा लेता है कहीं साहेब आदेश न कर दें कि तुम्हें इन्हें भी हटाना होगा ।

साहब, सिपाही की ओर देखने से गुरेज़ करते हैं और बढ़ जाते हैं किसी मित्र के आह्वाहन पर, ‘देर हो रही है सर, सुबह आना भी तो है !‘ आगंतुक ने साहब को फटफटी की ओर इशारा करते हुए कहा । साहब चाय की चुस्की के साथ मुस्कियाने की झूठी कोशिश करते हैं और लद जाते हैं फटफटिया पर । साहब के ओझल होने तक सिपाही यथावत सावधान मुद्रा के जड़त्व को तोड़कर आसमान की ओर देखता है, आंखे बंद करता है और गहरी सांस लेता है

”सर ताला लगा रहें हैं, भीतर आना है तो आ जाइए, लगे तो चाभी नियरे आलमारी में रखी है, महंगू दे देगा आपको ।” चैतू ने कर्तव्य निर्वहन का परिचय देते हुए दरवाजा बंद करता है  ‘खटाक’ ।

सिपाही बिना किसी आदेश के विश्राम न होते हुए सीधे आगे बढ़ की कार्यवाही पर मतदान केंद्र के मुख्य प्रवेश द्वार तक पहुंचता है जहां उसे एक विराट सिपाही से भेंट होती है जो अनगिनत सालों से पहरेदारी कर रहा है तटस्थ, सुदृढ़, सजीव, अडिग । जिसकी बुनियाद फौलादी है, जो जमीन की गहराइयों में छेद और आसमान की ऊंचाईयों को भी भेद सकती है । चहुं दिशाओं में हाथ फैलाए, अंतरिक्ष का आलिंगन करती हुई इसकी शाखाएं मानों अपने आप को सर्वस्व न्यौछावर करने को आतुर हो रहीं है । तेज हवाओं का झोंका पेंडुलम की भांति हवा में लहराते हुवे इसके मौन को तोड़ने की असफल चेष्टा करता है, जिससे भयानक नाद उत्पन्न होता है लगातार, अनवरत…लेकिन समय की मार इस वयोवृद्ध सिपाही पर स्पष्ट देखी जा सकती हैं जी हां ये बहुरूपिया सिपाही जो अभी बरगद का भेष धारण किए हुए है अब उसकी जड़े बूढ़े व्यक्ति की हड्डियों की भांति जमीन से बाहर हो चुकी हैं, तना मानों बिना आंत का पेट जिसमें घास-फूस, कुश-काँट बहरहाल दो पिल्ले और उनकी मां अपने – अपने सिर को पैरों में छिपाए हुए एक दूसरे की प्रतिलिपियाँ उतार रहे हैं, वैसे ही बरगद की निर्बल शाखाएं एक दूसरे की पूरक बनी हुई हैं ।

रात्रि का तीसरा पहर शुरू होता है । मौसम का उन्माद और जाड़े की सेंकाई बढ़ रही है हौले हौले, सी – सी  की आवाज करते हुए झींगुर अपने ड्यूटी पर पाबंद हैं और उधर सरकारी सिपाही भी । निर्वात सा माहौल है, सिपाही बरगद के नीचे बने नवनिर्मित चबूतरे पर विराजमान है, जिसका हाल ही में कायाकल्प यहीं के किसी भावी उम्मीदवार ने किया हुआ है । सिपाही मौन है, अचेत है, कल्पनाशील है अपने अतीत के उन दिनों में जहां उसके बाबा सुनाया करते थे कि, ‘किसी जमाने में बरगद के नीचे उम्मीदवारों के समर्थन में हवा में हाथ भर हिला देने मात्र के बहुमत से उसका चयन हो जाता था । लोग एक दूसरे के कानों में बोलकर भी अपना समर्थन जता देते थे यहां तक कि अधिकांशतः निर्विरोध ही चुनाव होते थें ।’ सिपाही सोचता है कितनी सरल व्यवस्था रही होगी, निष्पक्ष, प्रत्यक्ष और कार्यप्रणाली पर आधारित । तभी अंतःकरण से आवाज आती है ऐसी व्यवस्था का क्या लाभ जहां वर्ण व्यवस्था में ऊंच – नीच, तिरस्कार की भावना हो, कुछ गिने चुने लोगों में ही मत प्रयोग का अधिकार हो जो प्रलोभन और स्वार्थ में किसी निरंकुश, दुष्चरित्र व्यक्ति का चुनाव कर दें । इधर सिपाही की ऊहापोह स्थिति खत्म नहीं होती उधर चौथा पहर दस्तक दे देता है ।

‘क्या सर, सोए नहीं आप !’

(सिपाही की एकाग्रता भंग होती है और पीछे देखता है ।)

‘महंगूआ नाम है हमार, बिहार से हैं; चैतु हमसे जेठ है दू बरस !’

‘छठ पर गांव नहीं गए आप लोग ?’

सिपाही ने हथेलियों का घर्षण करते हुए पूछा !

‘हम लोग गांव जाते तो इहां इलेक्शन कौन कराता सर ?’

महंगू की हाजिर जवाबी पर दोनों एक दूसरे को देख पौने दो इंच होंठ हिला देते हैं ।

भोर हो गई है, सन्नाटा अभी भी पसरा हुआ है, मंहगू बतीया रहा है सिपाही से सट कर, सिपाही बढ़ जाता है मंहगू से हट कर; क्योंकि महंगू दतुवन करता है कभी कभी और सिपाही ब्रश घसता है रेगुलर । नित्य कर्म से निवृत्त हो कुछ लोग अपनी साधना में लगे हुए हैं जो उन्हें कुछ दिवस पहले प्रशिक्षण में मंत्र स्वरूप दिया गया था, सिपाही भी उनमें से एक था ।

शनै: शनै: चहल पहल बढ़ रही है शायद मतदान केंद्र का ताप भी, पीओ साहब के साथ लगीं दोनो महिलाकर्मी फुर्ती के साथ अपने अपने स्थान पर पहुंचने के लिए दौड़ लगाती हैं ताकि पीओ साहब चवन्नियां मुस्की के साथ इनका आवाभगत कर सकें और आदेश कर सकें कि “समय को आज से पी 1 और पी 2 बुलाया जाए ।” लेकिन हाय रे करम ! पीओ साहब तो कहीं अज्ञातवास में लीन है साधक की तरह, और मैडम लोग खिन्न हैं यहां बाधक की तरह । जिस प्रकार स्नाइपर अपने वेपन पार्ट्स को असेंबल करता है बारीकी से ठीक उससे साढ़े चार एमएल ज्यादा यहां की कार्यवाही चल रही थी, मगर परिणाम पानी के घोल में शक्कर के अणु तराशने जितना निकलता ।

प्रवेश द्वार पर गहमा गहमी मची हुई है । पता चला है, अनाधिकृत प्रवेश करने की कोशिश में सिपाही ने दो लोगों को दौड़ा लिया है बूथ से। इधर चैतू आंख मलते हुए उबासी के साथ अपने अलसाये बदन को तोड़ देता है कई किश्तों में, हड्डी चटकने की आवाज आती है सो अलग  ‘हइई भगवान होssss’ उधर पीओ साहब फ़ोन नहीं उठा रहे मैडम लोगों का बुरा हाल हुआ जा रहा कहीं सेक्टर मजिस्ट्रेट अवतार न ले लें ।

मतदान केंद्र पर कार आती देख सिपाही चौकन्ना हो जाता है और दूर से ही गाड़ी को रोकने का इशारा करता है, तब तक गाड़ी पहुंच जाती है वयोवृद्ध सिपाही बरगद के नीचे चबूतरे के पास और पालकी की भांति उन्हीं कहारों ने पीओ साहब को उतारा जिन्हें कुछ देर पहले सिपाही ने चहेट दिया था । सिपाही पैर पटकता है और तन जाता है 7 इंच लगभग । साहब देखने से गुरेज करते हैं, बढ़ते हैं दो कदम, फिर वापस आते हैं और अपने कहारों की तरफ़ इशारा करके सुमधुर राग में अलापते हैं – “इन्हें यहां से जाने के लिए तुम्हें किसने कहा ? पता है कुछ ? एजेंट महोदय को तुमने ऐसे…… ” सिपाही ने मौन रहना उचित समझा । “ये आम लोग नहीं है, ये महाभारत के संजय हैं, साथ ही पार्टियों के संवाददाता भी, जिस रथ रूपी सिस्टम को आज के सारथी रूपी राजनेता विश्वास रूपी चाबुक से हांकते है वही चाबुक इनके लिए जादू की छड़ी होती है, जादू की छड़ी । अच्छा हुआ ये हमारे साले हैं वरना तुम तो…… ।” सिपाही के ऊपर अपार कृतघ्नता प्रकट करते हुए पीओ साहब घूरते रहते हैं कुछ देर तक, एकटक, लगातार, बार- बार, निरंतर ।

सिपाही यथावत सावधान मुद्रा के जड़त्व को तोड़कर आसमान की ओर देखता है, आंखे बंद करता है और गहरी सांस लेता है ।

उद्घोषणा होती है – ‘सुबह के 7 बज गए हैं मतदान शुरू हो चुका है आप लोग क्रमशः मतदान कर सकते हैं ।’ मतदान केंद्र एक प्रतिष्ठित रहवासियों के बीच का स्थापित केंद्र है सो शांतिपूर्ण मतदान संपन्न होने के अधिक आसार दिखते हैं लेकिन इतनी शांति जहां 9 बजने में बमुश्किल 10 मिनट ही बचे हों और शुद्ध रूप से वोटों की बोहनी भी न हुई हो यह स्थिति अबोध है, अपाच्य है, असह्य है । धीरे – धीरे समय के साथ – साथ लोगों का भी घूमना टहलना बढ़ता गया और एकाएक भीड़ सी हो गई । सिपाही ने फ़ौरन पुरुष और महिला वर्ग की कतारें अलग करा दी, अचानक से एक महोदय ने झल्लाते हुए कहा – ‘व्हाट अ पूअर सिस्टम, देयर इज नो रिलीफ फॉर सीनियर सिटीजन !’ सिपाही अंग्रेजी के दो शब्द सीनियर सिटीजन ही पकड़ सका; उसने तत्काल अपने आप को महोदय के समक्ष पेश किया । महोदय तपाक से बोल पड़े – “पचासों बार सेक्टर मजिस्ट्रेट रहा हूं ; एंड सो मेनी टाइम्स ईआरओ, डीइओ, सीईओ बट ऐसी व्यवस्था आई डॉन्ट लाइक !” सिपाही ने सूझ बूझ दिखाते हुए महोदय को कतार में सर्वप्रथम, सर्वोपरि, सर्वसम्मति से ला खड़ा कर दिया । सिपाही ने कतार में सभी से निवेदन किया कि वरिष्ठ नागरिक अपने आप आगें चले जावें और बाकी लोग उनकी मदद करें । एक डबल चलीसा पार व्यक्ति ने पोपली आवाज में गरज कर कहा – ‘’बेटा शरीर के आकार के लिए पार्कों में घंटो खड़ा रह सकता हूं तो देश की सरकार के लिए क्यों नहीं !” शायद आवाज आगे खड़े हुए ‘सीईओ,डीईओ, इआरओ और पचासों बार के मजिस्ट्रेट‘ के कानों तक नहीं पहुंच पाई वरना कोई न कोई हरकत जरूर होती, सोचिए भला मैग्मा के सैलाब को धरती की परत रोक सकती है क्या ?  खैर, बच्चों के साथ बैठने वाले व्यक्ति का स्वभाव बच्चों जैसा ही होता है सरल, उत्साही और जिज्ञासु ।

दिवसावसान का समय हो चुका है, मतदाता विरले ही आ रहे हैं, सिपाही पिल्लों को दुलारने-पुचकारने में व्यस्त हो गया है, तभी अचानक से दोनों महिलाकर्मी कमर पर हाथ रख, कराहने की मद्धम आवाज के साथ, पैरों को घसीटते हुए चली आ रही हैं पुराने सिपाही के नीचे बने हुए चबूतरे के पास पहुँचती हैं और फैल जाती हैं महामारी की तरह ।
पी 1 – ‘मैने न जाने कितने चुनाव कराये होंगे लेकिन इतना हरा.., बे.., घ, ग, च,… अधिकारी मैंने अपनी 26 साल की उमर में अब तक न देखा होगा ।‘ (पी 2 आंखे मूंद कर ना में सिर हिलाती है लेकिन दिखने में लगता है कि पुरजोर समर्थन करती है, कहना जल्दबाजी होगा कि समर्थन उमर के बारे में था या अधिकारी के ।)
पी 2 – ‘काम न करना पड़े इसलिए कलमुंहे ने अपना चश्मा ही फोड़ लिया और कहता है कि मुझे चश्में के बिना चीजें चिंगारी दिखती हैं ।’
पी 1 – ‘अजी झूठ बोलता है निकम्मा सरासर झूठ ! चश्मा तो घर से ही फूटा था, देखी नहीं फ्रेम नहीं था एक तरफ और तो और पोहा में से भकाभक सेंगदाना बीन कर ठूंस रहा था और कहता है कि चिंगारी…’
पी 2 – ‘सही कहती हो दीदी ! अभी तक उस गंवार ने लिफाफों के प्रपत्र तक नहीं बना पाया, लिफाफे के भीतर लिफाफे देखकर तो जी बैठा जा रहा और वो है कि मजे में दीवार से चिपक कर आंखे दिखाता है ।’
सिपाही देखता है, सुनता है, और बढ़ जाता है ।

उद्घोषणा होती है – ‘आखिरी के आधे घंटे बचे हैं जिन्हें मतदान करना है वे शीघ्र ही कैंपस के भीतर आ जावे अन्यथा मतदान से वंचित रह जावेंगे ।’ तेज आवाज सुनकर पिल्लों की मां भाग जाती है, मतदान के भीतर से हो हल्ला शुरू हो चुका है, शायद किसी महिला की चीखने चिल्लाने की आवाज है, सिपाही दौड़ पड़ता है पर भीतर का नजारा कुछ अलग और आश्चर्यजनक जान पड़ता है, पीओ साहब महिलाओं से निवेदन, प्रार्थनाएं, और दंडवत हुए जा रहे और महिलाएं हैं कि, लम्बी लम्बी साँसे खींची जा रही हैं मानो मां चंडी प्रत्यक्ष उपस्थित हो । सिपाही बिना कुछ सोचें आगे बढ़ जाता है, आंखे बंद करता है और गहरी सांस लेता है ।

रात्रि के दूसरे पहर की शुरुवात होने को हैं, दूसरे पोलिंग बूथ की पार्टियों आ पहुंची हैं मदद के लिए । कोई चपटा लगा रहा, कोई बी यू, सी यू पर सील, कोई नस्तीबद्ध करने में जुटा है, कोई लिफाफों की जमावट में व्यस्त है और इधर पीओ साहब किसी अन्य व्यक्ति से फोन पर मान-मुनौव्वल में गले जा रहे हैं, झाग की तरह ।आख़िरकार, कछुए की चाल की भांति मतदान सामग्रियों को रात्रि के मध्य पहर तक समेट कर, पार्टियां स्ट्रॉन्ग रूम की ओर कूच करती हैं ।

सुबह के 08 बजने को है । सिपाही का फ़ोन बजता है, आदेश हुआ है तत्काल अपनी उपस्थिति दर्ज करायें । सिपाही आसमान की ओर देखता है, आंखे बंद करता है और गहरी सांस लेता है ।

अभिषेक यादव

खेदारु काका

बकरी बेच, भइल बियाह खेदारु काका के,

आज़ादी से पहिले इनका घर ना रहे पाका के 

घर ना रहे पाका के ऐहि से होखे सकेता;

नावा-नहर कनिया के सभे झांक लेता।

सभे झांक लेता, इज्जत का अब रही?

काका के मन-मथऽता अब केसे हम कहीं?

अब केसे हम कहीं मन में कलह-क्लेश,

कवना जगह पलायन कवन धरीं भेष?

कवन धरीं भेष पहचाने ना कोई,

चिरई-चौवा, मैना-कौवा अउर कोई ना होइ।

अउर कोई ना होइ निर्जन जगह पेयान,

हमार दुलही संगे-२ हम राखेब धेयान।

हम राखेब धेयान रहेके अकोरा में,

इहे सोच खेदारू का भरे लगले झोरा में।

भरे लगले झोरा में गहना-गुरिया, लुगरी

काका चलस आंगे-२ पीछे काकी मुनरी।

पीछे काकी मुनरी काका के अध-अंग,

जिनगी के हर डेग प देत रहली संग।

देत रहली संग तन-मन आ धन से,

काकी चलस धीरे-२ काका चलस मन से।

काका चलस मन से, जंगल बीच पहाड़,

झाड़-फूस जोगावऽतारे करे खातिर आड़।

करे खातिर आड़ जंगल बीच निवासी,

अब त मज़े-माज़ा बा सोचे कका बिस्वासी।

सोचे कका बिस्वासी कछु दिन बितल रात,

कंद-मूल से पेट भरे कहाँ मिलऽता भात?

कहाँ मिलऽता भात गांव ईयाद आवे,

रात-२ जगले बीते कुकुर,सियार डेरवावे।

कुकुर,सियार डेरवावे भाँति-२ के शोर,

अब त हिया कुहुकता मन प कवन जोर?

मन प कवन जोर कइले जे नादानी,

अनबोलता काकी चुप-चाप झेलऽतानि।

चुप-चाप झेलऽतानि कहली एगो बात,

‘सुनऽतानी ऐ जी घरवा बड़ी सोहात।’

घरवा बड़ी सोहात इहाँ निक ना लागे,

जइसे विप्र सुदामा ओइसे काका भागे।

ओइसे काका भागे लेहले घर के सुध,

देखते माई-बाऊ के हालत भइल बेसुध।

हालत भइल बेसुध लइका भईल जोगी,

झोटा-दाढ़ी झूलता फटल चीर वैरागी।

फटल चीर वैरागी बात समझ न आवे,

इधिर काका लजने कछु न कहऽतारे।

कछु न कहऽतारे मौनी बाबा खेदारी,

पीछे से मुनरी काकी आइल बाड़ी दुआरी।

आइल बाड़ी दुआरी हाथ में मोटरी धइले,

सास-ससुर ख़ुशी-२ साँझ बइठकी कइले।

साँझ बइठकी कइले कतना भइल कमाई?

भीतरे-२ पीरऽता काका गइले अझुराई।

काका गइले अझुराई खइले किरिया सोझा,

धन-गठरी चोरी भइल बताई केहू ओझा।

बताई केहू ओझा बात हो गइल गोल,

अब त काकी चेतस इ कवन बा झोल?

इ कवन बा झोल बात गइल मुरझाय,

काका-काकी संगे-२ जिनगी रहऽ बिताय।

जिनगी रहऽ बिताय हो गइले अब बूढ़,

बड़ी शान ह गऊवाँ में भईल करेजा जूड़।

अभिषेक यादव

अमर चित्र कथा अब बासी हो गई, इनसे जुड़ना गले की फांसी हो गई…..

‘अतीत’, वर्तमान से कहीं ज्यादा लुभावना लगता है हर कोई अतीत में जाकर बचपन के उन दिनों में खो जाना चाहता है जहां मिट्टी में लोटते पोटते मिट्टी के आलीशान बंगले बनाए जाते और अगली सुबह धराशयी कर दिए जाते थे कारण सपने और घर की रूपरेखा का आपस में मेल न होना, तब के समय में पढ़ने – लिखने, खेलने – कूदने और अन्य गतिविधियों में सटीकता, सरलता और तन्मयता को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता था शायद स्मार्टफ़ोन नही था तब । जेन – जी वाले बच्चे शायद ही जान पाएंगे कि, कभी चिट्ठी – पत्री को निजी और किताब – कॉमिक्स को सार्वजनिक माना जाता था उस दौर में..
कल्पनाओं का दौर था साहेब ! अम्मा, बुआ, दादी ने तो परियों के पंख के साथ – साथ उनकी मूंछें और पूंछे भी उगानी शुरू कर दी थीं धन्य हो टेलीविजन का जिसने इस अफवाह को गलत साबित कर परियों को तथाकथित ड्रैगन की तरह मुंह से आग की लपटों तक ही सीमित रखा और हां परियां इच्छाधारी नागिन बनकर डंस भी सकती हैं सो अलग । पंचतंत्र ने तो बिल्ली को मौसी का दर्जा भी दिलाया हमें और उधर टॉम को जेरी ने गुस्सा; लेकिन टॉम चूहा है या मौसी ससुरा आजतक कन्फर्म नहीं हुआ मुझे । ख़ैर जब कभी किताबों – कॉपियों, कॉमिक्स का नया – पुराना पिटारा हाथ लगता तो खोलने से पहले सूंघने का स्वाद कुछ अलग ही था बिल्कुल अलग सा, जी करता है भाषाविदों से अनुनय विनय कर उसे भी एक नये रस की उद्घोषणा करा दी जाय । उन दिनों रोचकता, भावुकता, प्रसन्नता, करूणता उन तमाम भावों को समेटे हुए श्री कॉमिक्स महाराज ने रविवार की छुट्टियों, वेकेशंस, ग्रुप डिस्कशंस आदि अवसरों पर अपनी मौजूदगी दर्ज करा ली थी, मुझे अच्छे से याद है जब ‘सुपर कमांडो ध्रुव’ ने ‘ प्रतिशोध की ज्वाला ‘ के बाद ‘ आदमखोरों के स्वर्ग ‘ में दाखिल होना चाहता था और इधर मेरे पास जेब खर्च के पैसे खत्म हो गए तो बमुश्किल ‘कमांडो ध्रुव ‘ के टास्क पूरा कराने हेतु सामूहिक सहयोग का सहारा लिया गया और अपने अंगूठा छाप दोस्तों को उस कॉमिक्स को तत्काल पढ़ने हेतु प्रेरित करते हुए ‘ नागराज ‘ को आज के थानोस के परदादा की तरह पेश करना पड़ा था । वो दौर कुछ और था, मां के हाथ से दो कौर था; जेठ की दुपहरी में, भागता मैं छूता कोई और था ।

आज जब कभी उन कॉमिक्स को ऑनलाइन देखता हूं तो आंखें लोर से भर जाती है और दिल भाव से । लेकिन ये दौर कुछ अलग सा है यहां वस्तु, पदार्थ के साथ – साथ भावों का क्रय- विक्रय समाज को लालची, निकृष्ट और संवेदनहीन बना चुका है, यहां बेचने की होड़ में जो आपाधापी दिख रही है उसका न तो कहीं ओर है न ही कोई छोर । ध्यान दीजिएगा! आज के समय विक्रेता आपके हाव – भाव और आपकी स्मृतियों को आपसे ही आप को आपके लिए आपकी जेब से अपने लिए आपका पैसा निकाल सकता है बिना किसी भनक के । आज मैं आपको इन्हीं खेलों में से एक खेल के तरीके से अवगत कराने जा रहा हूं, समय चाहूंगा प्लीज ।

‘अमर चित्र कथा’ नाम तो सुना ही होगा आपने ? आये दिन अखबारों में इनकी सचित्र प्रविष्टियां आती रहती है, इनकी किताबों का कहना ही क्या ! बहुत ही सुंदर प्रस्तुति के साथ ऑनलाइन और ऑफलाइन उपलब्ध रहती है सर्वत्र लेकिन इन्होंने जिस तरीके से अपने व्यापार को छलावा की तरह से बाजारीकरण किया है, जानकर आप दंग रह जाएंगे । मुझे बताते हुए दुःख हो रहा है कि मैं अपने पसंदीदा प्रकाशन के संदर्भ में मुझे डार्क फैक्ट्स लिखना पड़ रहा है फिर भी मैं लिखूंगा जरूर लिखूंगा ।

‘ अमर चित्र कथा ‘ अपनी किताबों का ऑनलाइन संस्करण अपने ऑफिशियल वेबसाइट और एप्लीकेशन पर उपलब्ध कराता है और पढ़ने के एवज में कुछ शुल्क वसूलता है अपने सदस्यों से याद रखियेगा ‘ कुछ शुल्क’ । खेल शुरू होता है ‘ कुछ शुल्क ‘ से, जब आप पहली दफा इनकी साइट पर विजिट करते हैं तो वे आपसे पेमेंट मेथड के रूप में यूपीआई को छोड़ केवल कार्ड की डिटेल भरवाते हैं और प्री ऑटो डेबिट के विकल्प को अचूक प्रयोग के रूप में तब तक ऑन रखते हैं जब तक आपका पैसा स्वतः कटता रहे । आपको तो बचपन जीना है इन किताबों में चाहे कुछ देर के लिए ही; आप थोड़े समझदार भी हैं आपने सोचा क्यों न अमर चित्र कथा के सब्सक्रिप्शन को किसी अन्य तरीके से खरीदे जिससे पैसे में बचत हो और काम भी बने जैसे सांप और लाठी की कहावत । आपने काग दृष्टि दौड़ाई और कंकड़ जैसे हार्ड सोर्स इकट्ठा किया और फिर चले गए घड़े के पास जी हां घड़ा जो आपकी प्यास से जायदा पानी समेटे हुए है । टाइम्स प्राइम एक इनफ्लूएंस एप है जो कि, बहुत सारी ओटीटी सब्सक्रिप्शन के लुभावने ऑफर के साथ आप के स्वागत हेतु हॉटस्टार -सोनी-अमर चित्र कथा जैसी उन तमाम सब्सक्रिप्शन के साथ दरवाजे पर खड़ी है मानो थाल में हल्दी – चंदन – कुमकुम- दीपक । जब आप देखते हैं कि आपके छः सात सौ रुपए के बदले लाख के दसवें हिस्से जितनी कीमत वाली चीजों का उपभोग करने का मौका मिला है सो आप खुश हो जाते हैं; बहुत खुश । तभी लकी ड्रा की तरह आपने जनरेट द कूपन देखा वाव ! कूपन जरूर कोई राजा रानी लॉटरी वाला कूपन होगा जैसे ही आपने टैप किया, उफ्फ ! ये तो किसी कैप्चा से कम नहीं कोई बात नही आपने कूपन कोड का गट्ठर बनाया और दे पटका अमर चित्र कथा के सब्सक्रिप्शन पेज पर बने हुए प्रोमो कोड के खाने में प्रोमो कोड अप्लाइड नाउ। आगें बढ़िए और अपने पेमेंट मेथड को एड करिए ध्यान रहे ! पूर्व में जैसे बताया ठीक वैसे ही केवल कार्ड एक्सेप्ट होता है यहां यूपीआइ की गुंजाइश नही और फिर लगेगा ‘कुछ शुल्क’ ।

बधाई हो ! आपको मिला है 6 माह का सब्सक्रिप्शन और फिर वही बचपन का पिटारा खूब पढ़िए मजे के साथ । घंटे बीते, दिवस बीता, बीत गया सप्ताह, धीरे धीरे मद्धम हो गया बचपन का उत्साह । आज के समय जहा क्षण भर मात्र में हजारों रील – फिल्में आपके उंगलियों के नीचे से सरक जाती हैं उस दौर में आप किसी एक जोन में ज्यादा देर तक टिक पाए इसकी संभावनाएं बहुत कम है मित्र । अब आपने सोचा कि, यह जो ‘कुछ शुल्क ‘ है वह व्यर्थ ही कटेगा क्यों न इसे बंद कर दिया जाय । जरूरी भी है, जब आपको ट्रायल पसंद न आए तो आप कोई भी सब्सक्रिप्शन कैंसल करने हेतु स्वतंत्र हैं; भई पैसा आपका तो फैसला भी आपका ही । लेकिन ठहरिए ! आप जहा पहुंच चुके हैं वहां से खाली हाथ के साथ साथ खाली पैर भी आना है क्योंकि जब तक आपका एक बार से ज्यादा ऑटो डेब्ट यानी स्वतः कटौतरी न हो जाय तब तक आप सब्सक्रिप्शन कैंसल नहीं कर सकते हैं । ये बात अलग है कि लाइफटाइम का प्लान ₹1500 में मिल सकता है लेकिन जो आपका पैसा कटेगा ₹1300 वो मात्र 6 महीने के लिए ही । अब आपके पैसे कट चुके हैं आप परेशान हैं आपने सब्सक्रिप्शन कैंसल कराने हेतु साम- दाम प्रक्रिया अपनाई ई- मेल किया, फोन लगाया, मेसेज डाला पर फायदा क्या ? कुछ नहीं । शायद आप भूल गए दीवार सुन सकती है कह नही सकती ।
अब आप थोड़े चिंतित हैं, हैरान हैं, हताश हैं, परेशान हैं, उदास हैं अब आप रिफंड वापसी हेतु विकल्प की तलाश में है लेकिन तभी ज्ञात होता है क्यूं न कार्ड वालों को फ़ोन कर बोल दिया जाय कि वे इस प्री ऑटो डेबिट सर्विस को बंद कर दें जिससे निकट भविष्य में कोई कटौती न हो सके लेकिन दुष्टता की हद देखिए कार्ड वाले अठन्नीया मुस्की के साथ आपको नजरंदाज कर देते हैं और इस विषय में अपनी असमर्थता दिखाते हुए सुझाव देते हैं सजगता के साथ । अब आपको लगने लगा है कि, आप बचपन की भावनाओं में बहते बहाते डूबते जा रहे है जहां पतवार की तलाश में मझधार में उपस्थित तनाव और शोक टाइप के बुडुआ आपको गर्त में डुबाने हेतु आतुर हैं ।

(अभिषेक यादव)

भोपाल गौरव

भोपाल गौरव

“क्या हाल है मियां ? बड़े दिनों बाद मुखातिब हो रहे ? जिक्र नहीं हो रिया आपका आजकल के अखबारों में ? कोई तकलीफ़ तो नहीं ?”
“कम से कम यूट्यूब पर वीडियो सीडि….यो..”(मुठ्ठी में कसी हुई कीपैड मोबाइल देख शब्द अधूरे रह गए । )

सलीम साब मुस्कुराते हैं, कुछ कहने को होते हैं फिर आगे बढ़ जाते हैं ।

“अरे! अरे! कम से कम अपना लगने वाला नंबर तो देते जाओ मियां “
(निवेदन कहें या आदेश जो भी हो स्वार्थ तो अपना ही था.)

“नाइन, फोर…….”

चश्में की पुरानी फ्रेम को पोंछते हुवे सलीम मियां बीएमसी की गाड़ी में सवार हो जाते हैं ।

सुलूक आज भी जस का तस है, लेकिन चेहरे के भाव कह रहे हो मानो फर्ज़ और ज़िम्मेदारी में कुछ तो जद्दोजहद चल रही है, परिणामस्वरूप भले फर्ज को विजयी घोषित कर दिया जाय लेकिन क्रिकेट की भांति ऐसे निर्णय में जिम्मेदारियों के प्रति डीआरएस की गुंजाइश भी तो बनती है ।

आज के दौर में जहां लोग मुर्दे को कंधे देने से लेकर, राह चलते जरूरतमंद लोगों की एक बेला के निवाले का प्रबंध कराने तक का श्रेय स्वयं से स्वयं को अर्पित कर फेसबुक,ट्विटर,व्हाट्सएप आदि जगहों पर चेंप देते है, इस दौर में यह व्यक्ति नि:स्वार्थ, निष्काम, निरंतर उसी जुनूनियत के साथ अग्रसर है जो आज से ३३ साल पहले हुआ करता था । सच कहे तो यह एक फरिश्ते का ही काम हो सकता है, जो लाचार, बेबस, सहमे हुए लोगों के दिलों में मजबूती, साहस और फौलाद भर दे ..
ऐसे नेक कार्य के लिए ऐसे खुदा के बंदे को लेन-देन का विचार कभी दिल में आया ही न होगा, ऐसा काम ही न था. सोचिए जरा ! जान की मूल्य कोई दे सकता है भला ?

ऐसा सोच ही रहा था तबतक मेरे सहकर्मी ने पूछ लिया ‘क्या बात है ब्रो, बड़े चिंतित दिख रहे हो ? कल ब्रीम ११ पर किसको कप्तान बना दिया ?’
मैंने ना में सिर हिलाया ।
‘अरे भाई बोलो भी, करोड़पति बनने के बाद तो तुम मिलोगे भी नहीं !’ बड़े विश्वास भरे स्वर में सहकर्मी ने पीठ पर थपेड़ मार दी ।
” गज्ज़बे बकलोल हो बे, हम(पूर्वांचल के हैं सो) अंगूरी लाल थोड़े न है !”
ये अंगूरी लाल कौन है ?
“मुंगेरी लाल के पप्पा !”
मैंने आंखे चौड़ी कर तीव्रता के साथ डांटा।
सहकर्मी समझ गया कि थपकी और थपेड़ में जमीं – आसमां का अंतर होता है ।
लेकिन था तो एक नंबर का बेलज्ज, निर्दयी ने क्षमा मांगने की जगह उसने बात को दूसरी तरफ मोड़ना उचित समझा ।
“अच्छा ! तुम्हे पता चला आज रोजनामचे में सांप दिखा था, लास्ट टाइम जैसा, पूरा करैत था करैत ! मोटा सा काला सा, बाप रे मैं तो डर गया यार “
“पता है भाई और ये भी पता है कि, लास्ट टाइम जैसे सलीम मियां ने ही उसे पकड़ा है!”
मैंने भिज्ञतापूर्वक कहा ।
“ओहो! सलीम भाई, वाह यादव जी वाह बड़ी जान पहचान है; सलीम मियां से आपकी ?”
उसने भौंहों का न्यून कोण बनाते हुवे टोन छेड़ी ।
मैंने बोलना उचित न समझा और न ही उसकी तरफ़ देखना ।
“अच्छा तुमने सलीम मियां का २८५ सांपों वाला वीडियो देखा है? कितना वायरल हुआ था यार पूरे इंटरनेट पर !”
उसने रोचकता से जानने की कोशिश की ।
मैंने तटस्थता बनाए रखा ।
“अरे कुछ बोलेंगे महाराज, या चोट ज्यादा गहरी है पीठ पर ?
उसने मौन को ललकारा …
मुझसे रहा नहीं गया, मैंने आवेश में आकर कह दिया, “जिसको तुम वायरल सांप वाला समझ रहे वो गुमनाम जिंदगी जी रहा आजकल, लास्ट टाइम इधर ही मिले थे यही कोई साल भर हुवे होंगे. कितना जोश, कितना उत्साह, स्फूर्ति के भंडार से भरा हुआ यह व्यक्ति तब पतले से तार पर फन फैलाए बैठे काले नाग की फुंफकार को देखता तो इतना भावविभोर हो उठता मानो वर्षों से कोई साधक अपनी अचूक साधना में लीन हो और अचानक से उसकी साधना पथ की कड़ियां मिलती जा रही हो जुड़ती जा रही हो… एक एक करके । सांप के इस विकराल रूप को देख बड़े बड़े धैर्यवान लोगों की भी धड़कने तेज हो जा रही थी लेकिन जैसे ही मदमस्त सांप ने अपने चक्षु खोले अपने पास सर्पमित्र सलीम मियां को देख लहराने लगा मानो कोई दुधमुंहा बच्चा विलख रहा हो, हुचक रहा हो, जिसने अभी अभी मां के ओझल होने और फिर से समीप आने पर माता के आंचल को फिर से जकड़ लिया हो और कह रहा हो कि आप कहा गए थे, मुझे एक पल के लिए आपसे दूर नहीं रहना आप मुझे स्वंय के साथ ले चलिए कहीं भी किधर भी आपके सिवाय मेरा कोई विकल्प ही नहीं ।”

” हां हां सही कह रहे मैंने फ़ोटो भी खिंचवाया था, 8 फिट से कम न होगा कालिया ..”
सहकर्मी ने मोबाइल गैलरी पर टैप करते ही टप से बोल पड़ा ।
‘भाई फोटो रहन दो, मैं तो इनके साथ घर गया था इनको और इनके सांप को छोड़ने के लिए ।’
मैंने श्रेय के भाव से शायद ही कहा होगा।
‘ सुना है वहां भी सांप है इनके पास तुमने देखा क्या ?’
आतुरता से पूछी गई बातें मुझे बिल्कुल पसंद नहीं फिर भी मैंने बोलना सही सोचा !
” भाई तुम्हें जानना क्या है, सांप के बारे में जानना हो तो गूगल कर लो अगर सलीम मियां के बारे में जानना हो तो इनके ऑफिस चले जा, वहां दीवारों पर लटकती वे तमाम तस्वीरें हैं जिसमे कई सीएम, डीएम, जीएम, एसपी, मंत्री, संतरी आदि भले प्रसिद्धि को दर्शा दें लेकिन जब बात वास्तविकता की हो तो चिढ़ाने से बाज नहीं आती ।”

“मैं कुछ समझा नहीं, तू इतनी गहराई से क्यों बता रहा ?”
उसने ‘ ठहरिए ! और धीमें चलिए !’ की तरफ़ इशारा किया।
मैंने ठिठकते हुए कहा – ” तुम्हे क्या लगता है सीएम/डीएम, मंत्री के साथ फ़ोटो खिंचवाने से, आश्वासन भर मिल जाने से मदद मिल ही जाती होगी ?”
“शायद हां !”
“बिल्कुल कम संभावना है।”
मैंने आश्वस्त करते हुआ कहा ।
” तुम जो सलीम मियां को देख रहे, वो सलीम आज ३३ सालों से सवा दो लाख सांपों को भोपाल के आस पास के इलाकों से पकड़ पचमढ़ी के जंगलों में प्रत्येक सप्ताह छोड़ने जाया करते हैं या यूं कहे उनके घर पहुंचाने जाते हैं वो भी २३ हजार के पगार पर जो कि बीएमसी (भोपाल नगर निगम) में हाजिरी देने के बाद मिलती है । अन्यथा कोई देने से रहा और ये लेने से रहे, जिनके घरों में सांप निकल आते है वो इनके आने और जाने का प्रबंध कर दे वही इनके लिए श्रमशुल्क है, वैसे फर्ज अदायगी में ऐसे बंदे बिना पैर के भी दौड़ पड़ते हैं अगर ख़बर तैर कर कान तक पहुंच जाए ।”
मैंने एक ही सांस में कह डाला मानो सीने में टीस भरी हो दुनिया के दिखावेपन और बड़बोलेपन के खिलाफ़ ।

सहकर्मी ने हिचकिचाते हुए पूछा – ‘ तो क्या होना चाहिए ?’
मैंने अधूरी बात को अपने मन के भाव का पूरक मान सुझाव देना जारी रखा – ‘तुम्हे पता है जो व्यक्ति ३३ सालों से निरंतर एक ही कार्य को सफलता पूर्वक जारी रखे वो उस कार्य में निपुण हो ही जाता है या यूं कहे तो वो विशेषज्ञ से कम नहीं होता, अगर सरकार या कोई संस्थान चाहे तो ऐसे महारथी व्यक्तियों के अनुभव का प्रचार – प्रसार अपने विद्यालयों, संस्थानों, क्लबों आदि में ट्यूटोरियल, व्याख्यान आदि के रूप में कर सकती है, सलीम मियां जैसे लोग समाज में व्याप्त अंधविश्वास को तोड़कर सामाजिक कुरीतियों से भी आजाद कराने का काम करते हैं जैसे कि- सांप का दूध पीना, संपेरे द्वारा बेजुबान नागों के विषदंत और जबड़े को तोड़ लोगों के गले में डाल आशीर्वाद प्राप्त करने का ढोंग कर पैसे ऐंठना आदि । मेरा मानना है कि, ख़ासकर हमें और सरकार को ऐसे विलक्षण प्रतिभा के धनी सर्पमित्रों और अन्य आपातकालीन स्थिति में लोहा लेने वाले फरिश्तों को न चाहते हुवे भी समय समय पर मदद करनी चाहिए । उनके उत्थान का भी हक बनता है ।”

अपने इस विचार पर सहकर्मी के साथ मुंझे स्वयं को विस्मयपूर्वक स्थिति में जान पड़ा मालूम हुआ क्योंकि आज से पहले मैंने ऐसी बोधात्मक बातें शायद ही कर पाया हूं वो भी इतने धाराप्रवाह वेग के साथ । सहकर्मी मुझे और मैं सहकर्मी को देखे जा रहे हैं, मौन ।

अभी भावुक क्षण का माहौल हम दोनों पर हावी होता तबतक अचानक से सहकर्मी के मोबाइल पर उसके मित्र का फ़ोन आता है; स्पीकर ऑन है …
(उधर से दूसरा व्यक्ति डांटता है) कि, “सांप के साथ ली गई सामूहिक और इंडिविजुअल तस्वीरें तुमने ग्रुप में साझा नहीं की अगर उसके पास बढ़िया कैमरे वाला फ़ोन होता तो अबतक वो किसी से रिक्वेस्ट नही कराता, स्टेट्स लगाना है; भेजो जल्दी, फटाफट, तुरंत ।”

फ़ोन कटता है, सहकर्मी गैलरी से सारी फ़ोटो डीलिट करता है और सेव करता है 942560** मोहम्मद सलीम खान सांप वाला ।

“क्या हाल है मियां ? बड़े दिनों बाद मुखातिब हो रहे ? जिक्र नहीं हो रिया आपका आजकल के अखबारों में ? कोई तकलीफ़ तो नहीं ?”
“कम से कम यूट्यूब पर वीडियो सीडि….यो..”(मुठ्ठी में कसी हुई कीपैड मोबाइल देख शब्द अधूरे रह गए । )

सलीम साब मुस्कुराते हैं, कुछ कहने को होते हैं फिर आगे बढ़ जाते हैं ।

“अरे! अरे! कम से कम अपना लगने वाला नंबर तो देते जाओ मियां “
(निवेदन कहें या आदेश जो भी हो स्वार्थ तो अपना ही था.)

“नाइन, फोर…….”

चश्में की पुरानी फ्रेम को पोंछते हुवे सलीम मियां बीएमसी की गाड़ी में सवार हो जाते हैं ।

सुलूक आज भी जस का तस है, लेकिन चेहरे के भाव कह रहे हो मानो फर्ज़ और ज़िम्मेदारी में कुछ तो जद्दोजहद चल रही है, परिणामस्वरूप भले फर्ज को विजयी घोषित कर दिया जाय लेकिन क्रिकेट की भांति ऐसे निर्णय में जिम्मेदारियों के प्रति डीआरएस की गुंजाइश भी तो बनती है ।

आज के दौर में जहां लोग मुर्दे को कंधे देने से लेकर, राह चलते जरूरतमंद लोगों की एक बेला के निवाले का प्रबंध कराने तक का श्रेय स्वयं से स्वयं को अर्पित कर फेसबुक,ट्विटर,व्हाट्सएप आदि जगहों पर चेंप देते है, इस दौर में यह व्यक्ति नि:स्वार्थ, निष्काम, निरंतर उसी जुनूनियत के साथ अग्रसर है जो आज से ३३ साल पहले हुआ करता था । सच कहे तो यह एक फरिश्ते का ही काम हो सकता है, जो लाचार, बेबस, सहमे हुए लोगों के दिलों में मजबूती, साहस और फौलाद भर दे ..
ऐसे नेक कार्य के लिए ऐसे खुदा के बंदे को लेन-देन का विचार कभी दिल में आया ही न होगा, ऐसा काम ही न था. सोचिए जरा ! जान की मूल्य कोई दे सकता है भला ?

ऐसा सोच ही रहा था तबतक मेरे सहकर्मी ने पूछ लिया ‘क्या बात है ब्रो, बड़े चिंतित दिख रहे हो ? कल ब्रीम ११ पर किसको कप्तान बना दिया ?’
मैंने ना में सिर हिलाया ।
‘अरे भाई बोलो भी, करोड़पति बनने के बाद तो तुम मिलोगे भी नहीं !’ बड़े विश्वास भरे स्वर में सहकर्मी ने पीठ पर थपेड़ मार दी ।
” गज्ज़बे बकलोल हो बे, हम(पूर्वांचल के हैं सो) अंगूरी लाल थोड़े न है !”
ये अंगूरी लाल कौन है ?
“मुंगेरी लाल के पप्पा !”
मैंने आंखे चौड़ी कर तीव्रता के साथ डांटा।
सहकर्मी समझ गया कि थपकी और थपेड़ में जमीं – आसमां का अंतर होता है ।
लेकिन था तो एक नंबर का बेलज्ज, निर्दयी ने क्षमा मांगने की जगह उसने बात को दूसरी तरफ मोड़ना उचित समझा ।
“अच्छा ! तुम्हे पता चला आज रोजनामचे में सांप दिखा था, लास्ट टाइम जैसा, पूरा करैत था करैत ! मोटा सा काला सा, बाप रे मैं तो डर गया यार “
“पता है भाई और ये भी पता है कि, लास्ट टाइम जैसे सलीम मियां ने ही उसे पकड़ा है!”
मैंने भिज्ञतापूर्वक कहा ।
“ओहो! सलीम भाई, वाह यादव जी वाह बड़ी जान पहचान है; सलीम मियां से आपकी ?”
उसने भौंहों का न्यून कोण बनाते हुवे टोन छेड़ी ।
मैंने बोलना उचित न समझा और न ही उसकी तरफ़ देखना ।
“अच्छा तुमने सलीम मियां का २८५ सांपों वाला वीडियो देखा है? कितना वायरल हुआ था यार पूरे इंटरनेट पर !”
उसने रोचकता से जानने की कोशिश की ।
मैंने तटस्थता बनाए रखा ।
“अरे कुछ बोलेंगे महाराज, या चोट ज्यादा गहरी है पीठ पर ?
उसने मौन को ललकारा …
मुझसे रहा नहीं गया, मैंने आवेश में आकर कह दिया, “जिसको तुम वायरल सांप वाला समझ रहे वो गुमनाम जिंदगी जी रहा आजकल, लास्ट टाइम इधर ही मिले थे यही कोई साल भर हुवे होंगे. कितना जोश, कितना उत्साह, स्फूर्ति के भंडार से भरा हुआ यह व्यक्ति तब पतले से तार पर फन फैलाए बैठे काले नाग की फुंफकार को देखता तो इतना भावविभोर हो उठता मानो वर्षों से कोई साधक अपनी अचूक साधना में लीन हो और अचानक से उसकी साधना पथ की कड़ियां मिलती जा रही हो जुड़ती जा रही हो… एक एक करके । सांप के इस विकराल रूप को देख बड़े बड़े धैर्यवान लोगों की भी धड़कने तेज हो जा रही थी लेकिन जैसे ही मदमस्त सांप ने अपने चक्षु खोले अपने पास सर्पमित्र सलीम मियां को देख लहराने लगा मानो कोई दुधमुंहा बच्चा विलख रहा हो, हुचक रहा हो, जिसने अभी अभी मां के ओझल होने और फिर से समीप आने पर माता के आंचल को फिर से जकड़ लिया हो और कह रहा हो कि आप कहा गए थे, मुझे एक पल के लिए आपसे दूर नहीं रहना आप मुझे स्वंय के साथ ले चलिए कहीं भी किधर भी आपके सिवाय मेरा कोई विकल्प ही नहीं ।”

” हां हां सही कह रहे मैंने फ़ोटो भी खिंचवाया था, 8 फिट से कम न होगा कालिया ..”
सहकर्मी ने मोबाइल गैलरी पर टैप करते ही टप से बोल पड़ा ।
‘भाई फोटो रहन दो, मैं तो इनके साथ घर गया था इनको और इनके सांप को छोड़ने के लिए ।’
मैंने श्रेय के भाव से शायद ही कहा होगा।
‘ सुना है वहां भी सांप है इनके पास तुमने देखा क्या ?’
आतुरता से पूछी गई बातें मुझे बिल्कुल पसंद नहीं फिर भी मैंने बोलना सही सोचा !
” भाई तुम्हें जानना क्या है, सांप के बारे में जानना हो तो गूगल कर लो अगर सलीम मियां के बारे में जानना हो तो इनके ऑफिस चले जा, वहां दीवारों पर लटकती वे तमाम तस्वीरें हैं जिसमे कई सीएम, डीएम, जीएम, एसपी, मंत्री, संतरी आदि भले प्रसिद्धि को दर्शा दें लेकिन जब बात वास्तविकता की हो तो चिढ़ाने से बाज नहीं आती ।”

( मैं और सलीम साब; फोटो खिचाते हुए। )

“मैं कुछ समझा नहीं, तू इतनी गहराई से क्यों बता रहा ?”
उसने ‘ ठहरिए ! और धीमें चलिए !’ की तरफ़ इशारा किया।
मैंने ठिठकते हुए कहा – ” तुम्हे क्या लगता है सीएम/डीएम, मंत्री के साथ फ़ोटो खिंचवाने से, आश्वासन भर मिल जाने से मदद मिल ही जाती होगी ?”
“शायद हां !”
“बिल्कुल कम संभावना है।”
मैंने आश्वस्त करते हुआ कहा ।
” तुम जो सलीम मियां को देख रहे, वो सलीम आज ३३ सालों से सवा दो लाख सांपों को भोपाल के आस पास के इलाकों से पकड़ पचमढ़ी के जंगलों में प्रत्येक सप्ताह छोड़ने जाया करते हैं या यूं कहे उनके घर पहुंचाने जाते हैं वो भी २३ हजार के पगार पर जो कि बीएमसी (भोपाल नगर निगम) में हाजिरी देने के बाद मिलती है । अन्यथा कोई देने से रहा और ये लेने से रहे, जिनके घरों में सांप निकल आते है वो इनके आने और जाने का प्रबंध कर दे वही इनके लिए श्रमशुल्क है, वैसे फर्ज अदायगी में ऐसे बंदे बिना पैर के भी दौड़ पड़ते हैं अगर ख़बर तैर कर कान तक पहुंच जाए ।”
मैंने एक ही सांस में कह डाला मानो सीने में टीस भरी हो दुनिया के दिखावेपन और बड़बोलेपन के खिलाफ़ ।

सहकर्मी ने हिचकिचाते हुए पूछा – ‘ तो क्या होना चाहिए ?’
मैंने अधूरी बात को अपने मन के भाव का पूरक मान सुझाव देना जारी रखा – ‘तुम्हे पता है जो व्यक्ति ३३ सालों से निरंतर एक ही कार्य को सफलता पूर्वक जारी रखे वो उस कार्य में निपुण हो ही जाता है या यूं कहे तो वो विशेषज्ञ से कम नहीं होता, अगर सरकार या कोई संस्थान चाहे तो ऐसे महारथी व्यक्तियों के अनुभव का प्रचार – प्रसार अपने विद्यालयों, संस्थानों, क्लबों आदि में ट्यूटोरियल, व्याख्यान आदि के रूप में कर सकती है, सलीम मियां जैसे लोग समाज में व्याप्त अंधविश्वास को तोड़कर सामाजिक कुरीतियों से भी आजाद कराने का काम करते हैं जैसे कि- सांप का दूध पीना, संपेरे द्वारा बेजुबान नागों के विषदंत और जबड़े को तोड़ लोगों के गले में डाल आशीर्वाद प्राप्त करने का ढोंग कर पैसे ऐंठना आदि । मेरा मानना है कि, ख़ासकर हमें और सरकार को ऐसे विलक्षण प्रतिभा के धनी सर्पमित्रों और अन्य आपातकालीन स्थिति में लोहा लेने वाले फरिश्तों को न चाहते हुवे भी समय समय पर मदद करनी चाहिए । उनके उत्थान का भी हक बनता है ।”

अपने इस विचार पर सहकर्मी के साथ मुंझे स्वयं को विस्मयपूर्वक स्थिति में जान पड़ा मालूम हुआ क्योंकि आज से पहले मैंने ऐसी बोधात्मक बातें शायद ही कर पाया हूं वो भी इतने धाराप्रवाह वेग के साथ । सहकर्मी मुझे और मैं सहकर्मी को देखे जा रहे हैं, मौन ।

अभी भावुक क्षण का माहौल हम दोनों पर हावी होता तबतक अचानक से सहकर्मी के मोबाइल पर उसके मित्र का फ़ोन आता है; स्पीकर ऑन है …
(उधर से दूसरा व्यक्ति डांटता है) कि, “सांप के साथ ली गई सामूहिक और इंडिविजुअल तस्वीरें तुमने ग्रुप में साझा नहीं की अगर उसके पास बढ़िया कैमरे वाला फ़ोन होता तो अबतक वो किसी से रिक्वेस्ट नही कराता, स्टेट्स लगाना है; भेजो जल्दी, फटाफट, तुरंत ।”

फ़ोन कटता है, सहकर्मी गैलरी से सारी फ़ोटो डीलिट करता है और सेव करता है 942560** मोहम्मद सलीम खान सांप वाला ।

@abhishekyadavgzp

कृपया धियान दी |

बहुत दिनन से पोस्ट ना कईला खातिर भूल-चूक माफ़ करीं सभे ।
राउर पसंद के हरेक कविता, कहानी आ हास्य व्यंग्य लिख रहल बानि, बाकिर तकनीकी परेशानी के चलते पोस्ट नईखे कर पावत ।
रउवाँ लो से निहोरा बा कि हमार हरेक रचना के आनंद लेवे खातिर एह वेबसाइट पर विजिट करीं-
http://www.maina.co.in

आभार ।

करुआसन

‘जियालाल! ‘
‘यस सर ‘
‘हीरालाल! ‘
‘यस सर’
‘भैयालाल!’
‘यस सर’
‘खदेङन? ‘
‘खदेङन? ‘
‘आईल बा कि ना हो?’
सगरी लईका एक सङगे बोललन सऽ,
‘जी गुरुजी आवत होई!’
अगिला दिन फेरु हम हाजिरी लगावे
लगनी
‘जियालाल!……….’
‘खदेङन!’
‘खदेङन!’
‘आईल बा कि ना हो?’
‘जी गुरुजी आवत होई!’
“ऐकर का मतलब? आज ओकरा ‘अकल के
कोल्हू’ धईल छोङाएब; आवेदऽसन।’
घिचपिचात आपन रजिस्टर पलट के कहनी।
कुछ घरि बाद ‘खदेङन’ एगो ७ बरिस के
सुघर लईका, जवना के पाकिट आधा झूलत,
नंगा पाँव, कपोर्छिल, हाथ में रबर आ नाक
में ट्रैफ़िक जाम……।
”कारे! खदेङना तु रोज-रोज काहै
लेटियातरे? तोरा ‘छछुंदर छुवले बा’ कि
‘अनबोलता काना’ भईल बाङे………।”
अनाप-शनाप बकला के बाद जब कुछ ना
बोलल तऽ हम महट्यवलि कि – ‘आछा चलऽ
जाऐ दऽ जाके पाछे बईठ जा!’
जब दूपहर भईल लईका लो खिचड़ी सरपेट के
खेलत रहे लो, तऽ हम ‘जियालाल’ से पूछनी
कि-
‘कारे! जिऊवा ई खदेङना गूँग हऽ का रे?’
‘जी गुरुजी ऊ तऽ ‘करुआसन’ हऽ!’
धराक से ऐतना कहला के बाद ऊ आपन
सरकत पेंट धईले खेले लागल। हम सोचनि
जिऊवा ‘आगे के जामल’ हऽ का? अबही
बीसो दिन ना पूजल ‘मोदी जी’ पद्मासन,
बलासन, बकासन, इहाँ तक कि मलासन, भी
कइनि हऽ ई ‘करूआसन’ का होला रे? मन
ही मन कुछ देर ‘ओझाई कईला’ के बाद जब
हमरा ‘सूखल पातो ना भेंटाइल’ तऽ मन
मार के घरे अइनि…..।
ऐतना घोचाह साहित्य तऽ हमरा मालूम
ना बाकिर अपना ‘भूसा-भंडार’ से जेतना
खाँचि उलेहे के रहे ओतना जरूर उलहनि।
बड़ी देर ले ‘आन्हार कोठी, गोटी
बीटोरला’ के बाद जब ओंघाई चपलस तऽ
फोफियात सुत गइनि।
जब सुबेर भईल तऽ हमरा ई सोची-सोच के
पाद आवे कि दरियें बुढ़िया आजी जवन कि
‘भोजपुरी में भार्गव डिक्शनरी’ से कम
नईखि, ईहाँ से १ बार पूछति तऽ कुल्ह
समस्या हल-भल हो जात। हमार आजी थोड़
कटकटाह बाकिर दिल कऽ साफ रहली|।
‘ऐ आजी! ई करूआसन का होला हो?’ हम
डेरात-डेरात पुंछन।
“मार कमासूत के! ऐकरा करूआसन के मतलबै
नईखे मालूम जाके ‘अकलेशवा’ से पूछ जेना
१० लाख रुपईया फोकट कऽ देले बारे
महटराई करे खातिर नऽ। हम तऽ पहिलही
‘कन्हैयवा’ से कहनि तोर बेटऊवा ‘आग
लगावन बा’ महटराई छोड़ि पुलिस-
पियादा के नोकरी कराव तऽ उहो
पेन्हा….।”
‘बस! बस! बस! आजी बस! ना तऽ हमार
कुल्ही पोल-चिट्ठा खोल देबू का?’
कुछ घरि मनौती कईला के बाद फेर से
पुछिए लिहनी-
‘ऐ आजी! तू तऽ जनते न बाङू हम ‘देह कऽ
सिंकुवार आ बुद्धि के मोट’ हई।’
आजी थोर घरि मयार भईलि आ कहे लगली
कि- “करूआसन मने विनाशी, अपशकुन, जेके
देखला, सुनला, संगे रहला, पऽ ऊँच-नीच,
जबुन होखे ओकरा करूआसन कहल जाला..॥
ज।इसे- अगर सुबेर-२ करूआसन ब्येकत लउक
जाव तऽ पूरा दिन हङासी लेखा बीतेला।
ऊ लो हर काम में असुभ होलन।”
‘ओकरा के ज्योतिषी काहैं ना कहल जाला?
जेकरा देखला से पता चले कि आजु कुछ
अपशकुन होए वाला बा?’, हम घचाक से
पूछनी।
‘काहैं चील्लर के चह तूरऽ तारे? ऐकरा आगे
हमरा कुछू नईखे मालूम हुंऽऽऽ…।’
हम फेर में पङ गईनि कि ‘हे प्रभु! ओह
लईका के साथे का कुछ अपशकुन भईल? जे
अभी काँचे उमिर में ऐतना जहर घोंटे के
परऽता’।
‘कोल्हू के बैल’ लेखा समय टेक आफ कइलस आ
हम सीधे प्राइमरी स्कूल में लैंड कइनि।
रोज के जइसन दैनिक-कार्यक्रम फेर जब
दूपहर भईल तऽ हम ‘हीरालाल’ के
बोलवनी।
‘कारे! तेतरहवा एह खेदरूवा के बारे में का
जानऽतारे?’
हीरा तेतरा के बोलस- ‘दी गुलू दी! पापा
तहेले ति- ओकला माई मुवल लहे दब ऊ पैदा
भईल आ तुथ दिन के बाद फेलू ओकल बाबू मू
दइले। ऐही थे ओकल ताता ओखे पंताइत भवन
में तुभागी काकी के बेच दीहले।’
‘पंताईत मने पंचायत भवन?’
‘दी गुलू दी!’
मन मसोस के रह गईल। जब पता चलल कि
पंचायत भवन केवल कोस भर के दूरी पऽ बा,
जहाँ के धुर ऐतना पावन बा। साँझ के बेरा
‘अगुताइल आ संकुचाइल’ मने ऊहाँ पहुँचनि
साफ-सुथरा आ एगो गझिन ‘नीम के गाँछ’ आ
ओकरा दहिने तरफ तुलसी कऽ चबूतरा कुल
मिलाके ‘जग खानी घर’ रहे…..। अभी हम
नियरयनि ना तबले कुछ दूरे से एगो आवाज
आइल-
‘आवऽ बेटा! तू खदेङन के महटर साब हवऽ
नऽ?’
हम एकाबैक पाछे मुङनी तऽ लगभग ७०
वर्षीय लाठी ठेंगत बुढिया माई, जेके
पथराईल आँख, ३२ भागे १६ गो दाँत
(एगो हँसमुख कऽ निशानी) आ नेह-भाव
अईसन कि करैला भी गदगद होके ‘रसदार
ऊख कप्टीशन’ में अव्वल के दावेदारी करे
लागे…।
हम हकबकात बोलनी- ‘काकी हम
तहरा…..।’
‘अरे बेटा! हम खदेङन कऽ माई, भाग कऽ
पोंछल सुभागी हई’।
‘ना काकी अईसे जनि कहऽ’
आँख लोरिया गईल।
कुछ बतकही के बाद हमरा मालूम भईल कि
सुभागी काकी के बियाह आजु से ६० बरिश
पहिले केनो गाँवे भईल रहे, उनका अदमी के
सर्पदंश से मौत होखला के बाद; उनका
सर-समाज के लो गारी, हीन आ हेय नज़र से
देखे लो। ऐही से ऊ अपना नईहर के पयान
कइली आ कुछ दिन ठेकला के बाद नईहरो के
लो ‘पिंड छोङा लिहले’। एही से काकी
आनि गाँवे मजूरी कऽ के पेट पालत रहली आ
कुछ बरिश पहिले ऐह पंचायत भवन पऽ
डेरा-डंडा डलले रहिं, आ तबे से खदेरना भी
साथे बा……। आँखि किरिये, करेजा
घेंघिया के रह गईल।
‘हाए राम!’
छि:छि: केतना दुबर-पातर आ घटिया,
समाज बा हमनि के कहाँ से विकास होई?
उधिर ‘मोदी जी’ डिजिटल-इंडिया के
आधारशिला रखत बानि आ इधिर हमनि के
बानि जा जे ओही सोच पऽ दाल दरत
बानि जा….। बाकिर हम अपना सुभागी
काकी बदे ई दू लाईन जरूर परोसब –
”धन्य बारू तू काकी धन्य बा अंचरा कोर।
अभागा खेदरुआ जेकर पोंछतारु लोर!’
‘माई के ई प्यार-दुलार कवन पैमाना
मापी?
डिजिटल-इंडिया का करि जे धईलस मन के
पापी!’

एगो मंसा (विचार)

एगो मंसा (विचार)

काल्ह ‘सिस्टर निर्मला’ के बारे में कुछ पढ़त रहनि तऽ हमरा मालूम चलल कि ऊहाँ के ‘मदर टेरेसा’ के ऊ उत्तराधिकारी रहनि हऽ फेर का हमरा ‘मदर टेरेसा’ के एगो सुक्ति ईयाद आ गईल कि-
”रोग से घृणा करो रोगी से नहीं!”
ठीक ईहै वैचारिक मत अगर आपन ‘भोजपुरी’ में शामिल कईल जाव तऽ हमरा जहाँ तक बुझाता कि हमनि के लोकगीतन में अगर गायकन पऽ टून मारल छोड़के ओह लो के गीतन पऽ धियान देवे लागल जाई तऽ कुछ सार्थक प्रयास होखि |

ई कहाँ तक सार्थक बा ?

जईसे हमरा से पूछल जाव कि ‘पवन सिंह’ के केनो जबरजस्त भक्ति गीत के नाव बताव तऽ हमार बिंदास जवाब रहित कि-
‘निमिया के डाँढ मईया लावेली झूलूहवा’ आ संडास गीत के बारे में हमार ख्याल(कुछ अईसन रहित)-

‘बतावऽ ए रसीली……..’
ई तऽ रहल दै मैटर जवना के सिद्धांत बा कि भोजपुरिया लो श्लील आ अश्लील गीत के एकही सपाट में पसंद करेला ला ना कि चोली भऽ साया के नाम पऽ|
अब दूसरका यानी गब्बर दल के सुक्ति के लथरावल जाव जेना के माने बा कि-
‘बुराई के जड़ से मिटा दो!’
यानी गायक लो पऽ बैन|

ई कहाँ तक सार्थक बा?

अगर अइसे होई तऽ शायदे-कबो आपन भोजपुरी के सम्मान बाचि अगर आँकड़ा के लेके गनना बैठावल जाव तऽ हरेक महीना लगभग ४०-५० एलबम आ रहल बा आ ऐह ‘पदाणु’ लो के कुछ जादे अउंजईली बा
नाव कमाए के|
छोड़ि ई सब आ अब आईं आपन काम के बात पऽ मने हमनि के ई प्रण लेवे के चाहि कि आज से हमनि के खाली भक्ति गीत आ
श्लील गीत पसंद करे के आ ओकरा सिवाय दोसर कुछू ना !
ना तऽ हमनि के स्थिति ओईसने होई जईसे
‘छान्ह पऽ के बिलार’ ना इधिर के ना उधिर के !

!जै हो बिछी माई!

!जै हो बिछी माई!

हजार झूठ पऽ १ बार
बीछि मारे डंक,
धरमी काम कवन कोताही
राजा चाहे रंक|

सच्चाई के आँख जनि
देखाई सरकार,
हमरे लेखा रऊवों के
ठोकी ४ बार|

देंहे-देंहे बिख भरल बा
तहरो से भी जादा,
केहू करे चपलूसी अभिषेक
केहू करे तगादा|

कैंसर के दवाई तू
इहे बात हम जानिले,
महादेव के श्रृंगार तू
सघरि जमात मानिले|

नेता नगाड़ी झूठ बोलेसन
कुछ तऽ कर उपाई,
डंक मारिके झूठ भगादऽ
जै हो बिछी माई|

नाम-गुन कऽ भेद

नाम-गुन कऽ भेद

नाम-गुन कऽ भेद में
करि तनिक विचार,
मुँह भइल बा चोखा अस
बखरा ‘लूर’ अचार |

होशिला जी मधुशाला में
डालऽस रोज पङाव,
महंगू काका पनही टांकस
गिर गईल बा भाव |

जवाहिर के ठेकऽ ता
उमिर एक सौ तीन,
राजा बाबू रोजहाई में
काटऽ तारे दिन |

रामनिहोरा सनकी-मैन
देखते खूबे गारी,
बाबा तिलोकी जी घरे
कुकूर झाँके दुआरी |

जंगबहादुर घर में सूतस
होते सांझ-अन्हार,
फकीरचंद के भट्टा चले
एक, दूई नहिं चार |

भइल मंगरुआ पैदा
शनि अमावस दिन,
फौजी बाबा फरुहा लेके
खोभऽतारे जमीन |

‘आतुर वश कुकर्मा’
संतोषवा के ढंग,
भागमनी के लोग लईका
छोङ देले बा संग |

मनभरन से ऊब गइल
पूरा गाँव-जवार,
सादा भाई के जिनगी हऽ
जईसे चित्राहार |

तेतरी काकी गूटर-गु के
धइले बाङि राग,
चिखुरी के रास न आवे,
तेलहन, बथुआ-साग |

बनवारी के उङ गईल
जिनगी के सभ पात,
पूछे मुसाफिर अभिषेक से
कहाँ बितवलऽ रात ?

बंगाली जी करऽ ओझाई
घूमलऽ ना बंगाल,
चिरागन क लगल चलिसा
जाले रोज नेपाल |

अमरजीत के खूब पदावंस
लईका सुबह-शाम,
नन्दू कऽ माई यशोदा
उनकर बाबू श्याम |

भोला का भीतर-घौंसि
मन में कलह क्लेष,
रामरुप मरजादा लांघस
सतरंगी के भेष |

भुङूक जी अपना गाँवे
करऽतारे चुङकाहि,
सती-माई क धाम पऽ
होता अब ओझाई |

रामभरोसे खेती करंस
पाँवे फटल बेवाई,
निरोगी के जान ना बांचल
केतनो भईल दवाई |

निरहू भाई भोजपुरी में करऽतारे राज,
‘अभिषेक’ अब का होई
कइसे बाची ताज ?

विश्व पर्यावरण दिवस

विश्व पर्यावरण दिवस
(५ मई)

आजु ‘विश्व पर्यावरण दिवस ‘ हs प्रकृति मानवता के ऊपर हास्यात्मक व्यंग्य कर रहल बे-

ऐ मनई तू बात ना बूझs
फेङ कटाई करेलs,
जेवन दिन दम घुटे लागी
राम नाम काहैं धरेलs ?

जियत जिनगी सथ निभाई
तबो मोह ना धरे हो,
गर-घंट मे पानी भरलs
टंगलs वर के तरे हो |

हवा-जल आ फल-फूल
कामें आई लवना के,
तू लो के सहूर ह कइसन
जइसन इजत बवना के |

कवि लो के कलम बथेला
गायक लो के गीत,
भीतरी पीङा केहू ना बूझे
केहू ‘सार आ हीत’ |

हवा छोङि हवा बिगरलs
फेंकलs फूहर धुआँ हो,
मानवता भी सूखे लागल
जइसे सूखे कुआँ हो |

हवा के बात हवा उङइल
कइलs नाहिं चेत,
हमनि के तs लाषा छोङिं
तू लो भरs खेत |

पानी हवे रंग बेरंगा
भईल बाटे बेदीन,
हितईगण पूछे ना पानी
बूझs तवना दिन |

जब-जब पानी उतरेला
तब-तब रऊवां रोईले,
हमरा कीमत मालूम करिं
जब पिछवाङा धोईले |

गिरगिट नेता रंग बनावस
दिनभर में बीस,
‘चेला-चपाटी’ माईक बजावस
हमनि बरे खीस |

अभिषेकवा त करे किसानी
यूरिया डाई डालिके,
रोग ब्याधि देंहे धरे
झंखस अपना हाल के |